लॉकडाउन के बीच अजीब मंज़र है, सड़कों पर गाड़ियों की जगह रेंग रही थी......

लॉकडाउन के बीच अजीब मंज़र है, सड़कों पर गाड़ियों की जगह रेंग रही थी......

लॉकडाउन के दौरान देशभर से मजदूरों की तस्वीरें सामने आ रही हैं. वो तस्वीरें बेचैन करती हैं. वो तस्वीरें रुलाती हैं. वो तस्वीरें बिलबिलाती हैं. मगर फिर ना जाने क्यों यही तस्वीरें मजबूर करती हैं कि इन लोगों की बेचारगरी और लाचारगी पर अफसोस करने या आंसू बहाने की बजाए फख्र करें. फख्र करें क्योंकि वे मजदूर हमें सिखा भी रहे हैं और बता भी रहे हैं कि असल में आत्मनिर्भर होने का मतलब क्या है? मत दो ट्रेन, रहने दो बसों को,साइकिल-मोटरसाइकिल, बैलगाड़ी भी नहीं हो तो क्या, पैदल ही भारत नाप लेंगे.


दर्द की कोई ज़ात नहीं होती. आंसुओं का कोई मज़हब नहीं होता. और ग़म का कोई इलाका नहीं होता. बस, कोरोना के दर्द आंसू और ग़म को देखना और समझना हो, तो बस मजदूरों की तस्वीरें देख लीजिए. कोरोना के बंद भारत में जब सारे पहिए बंद हो गए, शहर के चूल्हे ठंडे पड़ गए तो ये हज़ारों-लाखों बेबस लोग पैदल ही अपने गांव की तरफ़ चल पड़े. हमेशा ऐसा क्यों होता है कि हर दौर में हाकिम को सिर्फ़ हुकूमत चाहिए. ताकत चाहिए. लोग नहीं. काश हाकिम लोग एक बार इस तस्वीर को देख लें तो क्या पता हुकूमत से नफ़रत हो जाए और इंसानियत से प्यार.


130 करोड़ हिंदुस्तानियों में इनकी आबादी 80 से 90 करोड़ है. एक तिहाई हिंदुस्तान इन्हीं की वजह से आबाद है. पर इसके बावजूद हम और आप इन्हें किसान और मजदूर कहते हैं. बस, इतना ही जानते हैं हम सब इनके बारे में. आपके लिए ये भूखे-नंगे-बेघर लोग हो सकते हैं. मगर जिन घरों में आप रहते हैं ना, वो यही बनाते हैं. जिन सड़कों पर आप गाड़ियां दौड़ाते हैं, वो ये बनाते हैं. जो कपड़े आप पहनते हैं, वो यही सीते हैं. जो सब्ज़ी आप खाते हैं, वो यही उगाते और बेचते हैं. नहीं जानते हैं आप इन्हें. ज़रूरत भी क्या है.


हां, मगर ये आपको बहुत अच्छे से पहचानते हैं. क्योंकि जितने में आपका परिवार एक वक्त का पिज्ज़ा खाता है ना. उतने में तो इनका पूरा महीना निकल जाता है. मेहनत कर के खाते हैं और जहां जगह मिल जाए सो जाते हैं. मगर शिकायत कभी नहीं करते. ना भगवान से. ना आपसे. ना सरकार से. हिंदुस्तान की सियासत में किसान और मज़दूर उस करी पत्ते के जैसे हैं, जो चुनाव की हांडी चढ़ते ही उसमें सबसे पहले डाले जाते हैं और चुनाव में जीत का पुलाव तैयार होने के बाद सबसे पहले निकाल कर फेंक दिए जाते हैं.


इसी तरह अपने अपने घरों में एसी की हवा खाते लोगों के लिए ये लॉकडाउन बोरिंग हो सकता है. मगर इन्हें तो इस लॉकडाउन ने बर्बाद ही कर दिया है साहब. मुमकिन है कि आपको इन लोगों के बारे में जानने की कोई दिलचस्पी ना हो. मगर फिर भी इनके बारे में भी कुछ जान लीजिए. इन्हें भी पहचान लीजिए. हिंदुस्तान में अब तक कोरोना से ढाई हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं. लेकिन आपको शायद ये ना पता हो कि इन ढाई हज़ार लोगों में 300 से ज़्यादा ऐसी मौतें हैं जो कोरोना की वजह से तो हुईं मगर उनका कोरोना से कोई लेना देना ही नहीं.


300 से ज़्यादा लोग बिना कोरोना से संक्रमित हुए मारे गए. कौन हैं ये लोग. जी.. ये मज़दूर और किसान ही हैं. जो भूख मिटाने के लिए अपने घर-बार छोड़कर बड़े बड़े शहरों में पलायन कर गए थे. रोज़ कमाने और खाने वाले इन लोगों का लॉकडाउन ने काम छीन लिया. तो रोटी खुद ब खुद छिन गई. लिहाज़ा परदेस में भूख से मर जाने से बेहतर इन्होंने वतन लौटना समझा. इस जद्दोजहद में कुछ ट्रेन से कट कर मर गए. कुछ को तेज़ रफ्तार गाड़ियों ने कुचल डाला. कुछ को भूख ने मारा, तो कुछ चलते-चलते थक कर मौत की नींद सो गए.


एमपी के इंदौर बाइपास की एक तस्वीर खूब वायरल हो रही है. पर असल में वो आधे से ज़्यादा हिंदुस्तान की तस्वीर है. जहां हर बेबस, बेसहारा, मजबूर मज़दूर यूं ही अपने परिवार का बोझ कांधों पर उठाए बस चले जा रहा है. बैलगाड़ी में एक बैल की जगह उसने अपनी बेबसी में खुद को ही बैल के साथ जोत दिया है. शायद वो तस्वीर पूछ रही है कि क्या आज भी हिंदुस्तान इतना मजबूर है. अगर सबकुछ भूख पर ही निर्भर है तो फिर आत्मनिर्भर भारत कैसे बनेगा?


देश की सड़कों पर मजबूरी का यही इकलौता मंज़र नहीं. तपते सूरज और जलती गर्मी के बीच एक सिमेंट मिक्सर को जब पुलिस ने इंदौर बॉर्डर पर रोका तो उसमें से एक साथ भूख, प्यास, बेबसी, लाचारगी इंसानों की शक्ल में बाहर निकलना शुरू हो गई. पुलिसवाले हैरानी से बस देखते रहे. समझ नहीं आ रहा था कि इन पर रोएं या इन्हें गिरफ्तार करें. पुलिस ने इन्हें इस दमघोंटू मिक्सर से तो निकाल लिया, मगर उस भूख से कैसे बचाती. लिहाज़ा अब ये पैदल ही चल पड़े. एक गांव से दूसरे गांव. एक शहर से दूसरे शहर. एक राज्य से दूसरे राज्य.



लॉकडाउन के बीच सड़क पर अजीब मंज़र पसरा है. जिन सड़कों पर कभी मोटर गाड़ियां दौड़ा करती थीं, वहां भूख रेंगती नज़र आ रही है. कैसे घर पहुंचना है. किस रास्ते से जाना. कब पहुंचेगे. कुछ नहीं पता. ये बस चल रहे हैं. चलते जा रहे हैं. किसी ने कुछ खाने को दे दिया तो खा लिया. किसी ने पानी पिलाया तो पी लिया. जहां अंधेरा हुआ वहां सो गए. पर कमबख्त रास्ता इतना लंबा है कि मंज़िल मिल ही नहीं रही. बूढ़ी मां को साइकिल के पीछे बैठे एक महीने से ऊपर हो चुका है. दक्षिण भारत से राजस्थान अपने घर वो साइकिल पर ही निकल पड़ा है. घर कब पहुंचेगा, पता नहीं.


हर सफ़र की एक अलग दास्तान है. एड़ियां रगड़ रगड़ कर मरने की कहावत तो सुनी थी, एड़ियां घिसट घिसट कर अपने ही घर पहुंचने का फसाना लॉकडाउन ने सुना दिया. पथरीली सड़कों ने न जाने कितनों की एड़ियां फाड़ दी. छालों की तो खैर सुध ही नहीं, पैरों में प्लास्टिक की बोतल बांध बांध कर लोगों ने क़दम बढ़ाए. लंबा सफ़र. सर पे गठरी. पीठ पर सामान. गोद में बच्चा. कहीं सामान की जगह बुजुर्ग मां बाप और मीलों चलते जाना. चलते जाना बिना थके. बिना हिम्मत हारे. बिना किसी सरकारी मदद के. बिना किसी सरकारी गाड़ी के. सच कहें तो इनसे ज़्यादा आत्मनिर्भर और कौन हिंदुस्तानी हो सकता है.


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