कोरोना महामारी से अबतक भारत में 70 से ज्यादा मौतें हो चुकी हैं और तीन हजार से ज्यादा लोग इस वायरस से संक्रमित हैं। कोरोना के डर से देश और दुनिया में लोगों को लॉकडाउन यानि घरों के अंदर बंद रहना पड़ रहा है। कोरोना का सबसे ज्यादा असर उन लोगों पर पड़ेगा जो ना सिर्फ इस वायरस की चपेट में आ सकते हैं बल्कि जो राज्य की योजनाओं से वंचित रहे सकते हैं। लेकिन बिहार के ग्रामीण इलाकों में कोरोना के अलावा और क्या चुनौतियां है जिनपर सरकार को फोकस करना चाहिए।
देश में बिहार इकलौता ऐसा राज्य है जहां का अधिकतर नागरिक देशभर में मजदूर-देहाड़ी के लिए फैला हुआ है। एक तरफ बिहार की अर्थव्यवस्था काफी कमजोर है और दूसरी ओर बहुआयामी दरिद्रता सूची में बिहार को सबसे ऊंचा दर्जा मिला है यानि कि गरीबी के मामले में बिहार सबसे ऊपर आता है। कमजोर अर्थव्यव्स्था के चलते दशकों से राज्य की जनता अयोग्य स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और फीकी रोजगार योजनाओं से जूझ रही है।
हालांकि बिहार में कोरोना के मामले थोड़ी देर में आए थे लेकिन ये तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि बिहार के लोगों के लिए चिंता के विषय हैं पोषित खाना और स्वास्थ्य सेवाएं। सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि 2019 में बिहार एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम की वजह से 160 बच्चों की मौत हो गई थी और साल 2020 के मार्च महीने में कोरोना से पहली मौत हुई है। स्वास्थ्य सुविधाओं की बात की जाए तो बिहार का प्रदर्शन साल दर साल गिरता रहा है। कुपोषण की वजह से मरने वाले बच्चों की संख्या में बिहार का नंबर दूसरे राज्यों की तुलना में पहले आता है।
स्वास्थ्य सूचकांक में हर साल बिहार का प्रदर्शन गिरता जा रहा है, ये सूचकांक सिर्फ छोटे बच्चों ही नहीं बल्कि सभी उम्र के लोगों की जानकारी देता है। स्वास्थ्य सेवाओं का इतना बुरा हाल होने के बाद भी बिहार ने साल 2019-20 में केंद्र सरकार के नेशनल हेल्थ मिशन के तहत मिलने वाली 3,300 करोड़ रुपए की राशि का 50 फीसदी ही इस्तेमाल किया।
बिहार जैसे पिछड़े राज्य में स्वास्थ्य सेवाओं के साथ साथ पोषण को लेकर कई चिंताएं और सवाल सामने आते हैं। मौजूदा हालात में गरीब को केवल राशन कार्ड पर निर्भर कर देना एक बड़ी गलती साबित हो सकता है। बिहार का महादलित समुदाय आज भी राशन कार्ड का लाभ नहीं उठा सकता है।
बिहार सरकार को राशन, स्वास्थ्य, रोजगार और शिक्षा जैसे मुद्दों पर ज्यादा जोर देना चाहिए और आगे बढ़कर नई योजनाएं लानी चाहिए। राज्य में 1994 में पहली बार एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम का मामल सामने आया था और इसके बाद बिहार में लगातार सरकार की अनदेखी की वजह से इस सिंड्रोम से बच्चों की मौत हो रही है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम से कितने बच्चों की मौत हुई...
- 2012 120
- 2013 39
- 2014 99
- 2015 09
- 2016 04
- 2017 07
- 2018 09
- 2019 160
दशकों से बिहार को केंद्र सरकार से स्वास्थ्य सुविधाओं की आपूर्ति के लिए मदद मिलती रही है लेकिन बावजूद इसके बिहार में बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं बहाल नहीं हो पाई हैं। अब सवाल ये उठता है कि आर्थिक मदद और क्षेत्रीय पार्टी के सत्ता में होने के बाद भी राज्य सरकार जनता को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं क्यों नहीं दे पा रही है?
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में नरेगा मजदूरों का संगठन चलाने वाले एक अधिकारी बताते हैं कि जिन मजदूरों के पास राशन कार्ड है केवल वही मजदूर ही कुछ समय के लिए अपना लालन-पालन कर पाने में सक्षम होंगे। बिहार की 88 फीसदी जनसंख्या ग्रामीण क्षेत्रों में रहती है, इन क्षेत्रों में जातीय भेदभाव आज भी विराजमान है।
बिहार में इस वक्त की सबसे बड़ी जरूरत लोगों को राशन और पका हुआ खाना उपलब्ध कराना है। राज्य सरकार की मदद से बिहार के ग्रामीण इलाकों में इन सुविधाओं को पहुंचाना प्राथमिकता होनी चाहिए। ऐसा ना हो कि कमजोर वर्ग के लोग भेदभाव और हिंसा का शिकार बन जाएं।
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