यह देखना सुखद है कि अयोध्या विवाद पर उच्चतम न्यायालय के बहुप्रतीक्षित फैसले को देश ने धैर्य के साथ स्वीकार किया और कहीं पर भी कोई ऐसी अप्रिय घटना नहीं हुई जो चिंता का कारण बने। पूरे देश को प्रभावित करने वाले एक बड़े फैसले पर आम जनता का ऐसा संयमित आचरण उसकी परिपक्वता को ही रेखांकित करता है। इस परिपक्व आचरण की सराहना की जानी चाहिए-इसलिए और भी, क्योंकि उच्चतम न्यायालय के फैसले को उन्होंने भी स्वीकार किया जो अयोध्या में मस्जिद निर्माण के पक्ष में पैरवी कर रहे थे। नि:संदेह यह देखना भी सुखद है कि अयोध्या मसले पर उच्चतम न्यायालय के फैसले को करीब-करीब सभी प्रमुख राजनीतिक दलों ने भी स्वीकार किया। इनमें वे दल भी हैैं जो अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग का न केवल विरोध किया करते थे, बल्कि ऐसी मांग के समर्थकों के तिरस्कार का कोई मौका भी नहीं छोड़ते थे।
अब अगर ऐसे दलों के स्वर बदले हुए हैैं तो इसका अर्थ यही है कि उन्हें यह आभास हो गया कि अयोध्या में राम जन्म स्थान पर मंदिर का निर्माण हो, यह आकांक्षा केवल कुछ धार्मिक, सांस्कृतिक संगठनों की ही नहीं, बल्कि व्यापक हिंदू समाज की थी। दुर्भाग्य से इस आकांक्षा की न केवल अनदेखी की गई, बल्कि उसका उपहास भी उड़ाया गया। इतना ही नहीं, राम मंदिर निर्माण की मांग को खारिज करने को एक तरह का सेक्युलर दायित्व बना दिया गया। इसी के साथ मस्जिद के स्थान पर प्राचीन राम मंदिर होने का उल्लेख करने वालों को भी निंदित किया जाने लगा।
सबसे दुर्भाग्य की बात यह रही कि इस काम में खुद को इतिहासकार कहने वाले लोग भी शामिल हो गए। इन इतिहासकारों की ओर से अयोध्या में राम मंदिर होने के अलावा अन्य सब कुछ होने के विचित्र और हास्यास्पद दावे किए जाने लगे। ऐसे ही दौर में जब भाजपा ने खुद को अयोध्या आंदोलन से जोड़ा तो स्वयं को सेक्युलर-लिबरल कहने वाले नेताओं और विचारकों ने उसे लांछित करना शुरू कर दिया। उनकी ओर से ऐसा प्रचारित किया जाने लगा मानो समाज के एक बड़े वर्ग की भावनाओं से जुड़े किसी मसले को उठाना कोई संगीन राजनीतिक अपराध हो।
अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की खुलकर पैरवी करने के कारण भाजपा को राजनीतिक रूप से अछूत तो बनाया ही गया, उस पर यह आरोप भी मढ़ा गया कि वह अयोध्या पर राजनीति कर रही है। यह आरोप उछालने वालों ने इसकी अनदेखी करने में ही अपनी भलाई समझी कि अयोध्या के विवादित स्थल पर मस्जिद निर्माण की उनकी पैरवी वोट बैैंक की राजनीति के अलावा और कुछ नहीं थी। यही कथित सेक्युलर राजनीति अयोध्या मसले को आपसी बातचीत से हल करने में बाधक बनी। इसी राजनीति ने एक ऐसा माहौल बनाया कि न्यायपालिका को अयोध्या विवाद को हल करने को प्राथमिकता देने से बचना चाहिए। ऐसा तब था जब भाजपा की ओर से यही कहा जा रहा था कि न्यायपालिका सदियों पुराने इस विवाद को जल्द सुलझाए। भाजपा इसके लिए भी सक्रिय रही कि आपसी बातचीत से इस विवाद का समाधान हो जाए। इसमें किन दलों की ओर से कैसे अड़ंगे लगाए गए, यह किसी से छिपा नहीं।
इससे इन्कार नहीं कि 1992 में विवादित ढांचे का ध्वंस एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। हैरत नहीं कि उच्चतम न्यायालय ने इस घटना को आपराधिक कृत्य कहा। उसने विवादित परिसर में मूर्तियां रखने को भी गलत ठहराया, लेकिन इन कृत्यों से यह तथ्य ओझल नहीं होता था कि मंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण किया गया। आखिरकार यही साबित हुआ कि ये तथ्य सही थे। इसमें दोराय नहीं कि विवादित ढांचे के ध्वंस ने देश पर गहरा असर डाला, लेकिन उन राजनीतिक दलों के रवैये में कोई खास फर्क नहीं आया जो भाजपा को सांप्रदायिक घोषित कर सेक्युलर राजनीति करने का दम भरते थे। विवादित ढांचे के ध्वंस के बाद भाजपा अपने चुनाव घोषणा पत्रों में अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की मांग का समर्थन करने तक सीमित रह गई। इसके अतिरिक्त उसके नेताओं की ओर से जब-तब यह यह कह दिया जाता था कि अयोध्या उनके एजेंडे में है।
जब ऐसे बयान आते तो विपक्षी दल उस पर सांप्रदायिकता फैलाने की तोहमत मढ़ते और जब भाजपा किन्हीं खास मौकों पर राम मंदिर निर्माण की मांग का जोर-शोर से समर्थन करती नहीं दिखती तोे उस पर ऐसे कटाक्ष किए जाते कि राम मंदिर निर्माण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता दिखावटी है। ऐसे कटाक्ष यही प्रतीति कराते थे कि अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की बात कोई दल कर सकता है तो केवल भाजपा ही। साफ है कि यदि अयोध्या पर राजनीति की गई तो भाजपा से अधिक उसके विरोधी राजनीतिक दलों की ओर से की गई। आज यदि लगभग सभी विपक्षी दल अयोध्या पर उच्चतम न्यायालय के फैसले का समर्थन कर रहे हैैं तो इससे उनकी पुरानी भूल ही रेखांकित हो रही है। बेहतर हो कि इस भूल को स्वीकार कर यह समझा जाए कि राजनीतिक परिपक्वता के प्रदर्शन में ही सबका हित है।
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